मुर्गी भी माँ है !

सड़क..
कसाई की दुकान
पिंजरे में मुर्गे
चाकू से डरते!
ग्राहक की आमद,
मुर्ग़ों की शामत..
जान सबको प्यारी है,
कोने में छुपने की जंग
बाक़ायदा ज़ारी है!
आवाज़ आई
"एक किलो"
दुबक जाओ कोने में
बच लो!
मोटा वाला छुप रहा है,
कसाई का हाथ
ढूँढ रहा है
ये...
पकड़ाया
वो फड़फ़ड़ाया,
चिल्लाया,
पंखों को पकड़ा
टेंटुआ दबाया
आँसू भी नही निकले
तराज़ू के पलड़े
हिलने लगे!
ख़ैर..
उसे तोला,
कम्बख़्त डेढ़ किलो का निकला!
मोटे की जान में जान आई
पर पतले पर,
काल की छाया छाई|


यह तो सब ठीक
वहाँ दूर एक मुर्गी,
ख़ून के आँसू रोती है..
माँ है,
अपने बच्चों को
रोज़ कटने जाते देखती है!
देवकी की छह संतानें मरीं
तो भगवान ख़ुद जन्मे,
पर यह जानवर है
बेज़ुबान..
इसकी पीड़ा कौन सुने?
मुझे चोट लगे
तो माँ बेचैन जाती है
और इसके बच्चों से भरी गाड़ी
रोज़ शहर जाती है!
बेचारी..
अंडे देती है,
सेती है,
दुलारती है
तब चूज़े निकलते है
बेरहम दुनिया खा जाती है!
आह!
कैसी विडंबना..
वो बोल नही सकती
वरना ज़रूर बोलती
महज़ स्वाद के लिए
मेरे बच्चों को मत मारो,
तुम भी किसी के बेटे होगे
मेरी ममता को,
यूँ छुरियों से ना काटो..
अरे इंसानों !
मुझ पर रहम करो
छोड़ दो माँसाहार
बस शाकाहार करो..



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