हमारे प्राथमिक स्कूल के शिक्षक ने ही बता दिया था कि हम एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश के निवासी हैं। हमारा शासन हैं, हम ही चलाते है और हमारे लिए ही चलाया जाता है। शिक्षक जब ऐसा कहते थे तो आंखों में सपने ऐसे तैरते थे जैसे फूल पर आई सरसों के खेत पर हवा तैरती है। खुशबू समेटते हुए कोसों दूर तक बसंती राग सुनाती हुई। चलो हम बड़े होंगे, हमारी सरकार होगी, हमारी संस्कृति से चलेगी, हमारे सांस्कृतिक वैभव को और ऊंचाइयां मिलेगी, हम ''राम अभी तक हैं नर में, नारी में अभी तक सीता है को और मस्ती से गुनगनाएंगे। हमारे देश को शक, मुगल, हूण और अंग्रेजों ने जो दंश दिए हैं, उनसे उबर लेंगे। सब ठीक हो जाएगा।
यह विश्वास इसलिए और जमता चला गया कि जिस मंच पर देखो यही सुनते-सुनते हम बड़े हो गए कि ''कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। आज जब सुनने की बजाय देखने की बारी आई है तो जिधर, जिस मंच पर देखो यही, दिखाई दे रहा कि ''कुछ ऐसा करो कि मिट ही जाए हस्ती हमारी। विवाह पूर्व साथ-साथ रहो, समलैंगिकता पर गंभीरता से विचार करो, पबों में नंगी नाचने वालियों के अधिकारों की रक्षा करो, रियलिटी शो के नाम पर यह भी पूछ लो कि क्या आपकी इच्छा कभी किसी गैर के साथ सोने की होती है। यह सब पूरी चिंता के साथ करो। इसमेंं कहीं कोई लापरवाही हो गई तो फिर हम अपनी हस्ती नहीं मिटा पाएंगे।
पूरे देश में इन दिनों 'संपूर्ण दुष्टïता संपन्न भीड़तंत्रात्मक नंगा राज स्थापित होता दिखाई दे रहा है। सत्ता के भूखे, पैसे के भूखे, शरीर के भूखे भेडिय़ों के हाथों समूची व्यवस्था चेरी होती दिखाई दे रही है। इन भेडिय़ों की भीड़ बढ़ती ही जा रही है और जाहिर है लोकतंत्र बनाम भीड़तंत्र में इस बढ़ती संख्या का मतलब क्या होता है। ताजा उदाहरण है कि आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले को लेकर भारत सरकार को हरकत में आने में भले ही समय लगा हो, लेकिन समलैंगिकता के समर्थन में एक प्रदर्शन ने सरकार से सहानुभूतिपूर्वक विचार का बयान जारी करवा दिया। सरकार के भीतर इस प्रवृति से किसकी सहानुभूति क्यों है, यह गंभीर विषय है।
इसी कड़ी में मध्यप्रदेश का शहडोल जिला जुड़ गया है, जहां सामाजिक संवेदना के सामने 'होम करते हाथ जलेÓ जैसी स्थिति पैदा कर दी गई है। कथित कौमार्य परीक्षण को लेकर हंगामा सड़क से संसद तक हो रहा है। वैसे तो सरकार की तरफ से स्पष्टï किया जा चुका है कि ऐसा कोई परीक्षण नहीं हुआ है। फिर भी हंगामा मचाने वाले तो मचाएंगे ही। पहले भोपाल में इस बात की जमकर शिकायतें हुईं कि मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के अंतर्गत सरकारी पैसा लूटने के लिए कई शादीशुदा जोड़े फिर से शादी कर रहे हैं। जांच करने में शिकायत सहीं पाई गईं। तब सरकार ने निर्णय लिया कि इस मामले में सावधानी बरती जाए कि अपात्र लोग इसका दुरूपयोग न कर सकें। ऐसा बताया गया है कि शहडोल जिले में हाल ही में इस योजना के तहत 152 कन्याओं के विवाह की योजना बनी । इस विवाह से पूर्व कुछ डाक्टरों ने पूर्व सावधानी के तौर पर लड़कियों से पूछताछ की तो 14 युवतियों ने गर्भ होना स्वीकार किया और जांच में पाया भी गया। अब इसका क्या कारण होना चाहिए, या तो युवतियां शादीशुदा है या फिर वे शादी से पूर्व शारीरिक संबंधों की समर्थक हैं। अब ऐसे में उन लोगों को जो शहडोल प्रकरण पर हायतौबा कर रहे हैं पहले यह तय कर लेना चाहिए कि वे शादीशुदा की पुन: सरकारी खर्च से शादी कराना चाहते हैं या फिर विवाह पूर्व यौन संबंधों के वकील बनना चाहते हैं।
दलीलें कोई कुछ भी दे सकता है लेकिन विरोध करने वालों में यदि तनिक भी नैतिकता है तो वे अपने आप से पूछें कि इन दोनों में से एक भी परिस्थिति अपनी बहिन बेटी के साथ स्वीकार करेंगे क्या? मर जाएंगे, जमीन में धंस जाएंगे, जब कभी स्वयं के बारे में ऐसी कल्पना भी कर लेंगे। दूसरों के लिए कहना बहुत आसान है लेकिन क्या कोई चाहेगा कि उसका बेटा और बेटी समलैंगिक शादी करके घर में घुस आंए। छाती फट जाएगी, आसमान टूट पड़ेगा, उस घर के ऊपर।
अकेले में बात करो तो इस अपसंस्कृति पर चिंता करने वालों की कमी नहीं मिलेगी। लेकिन फिर भी आज कथित समाज सेवी संस्थाओं और मानवाधिकार वादियों के हाथों में जिनके समर्थन की तख्तियां दिखाई देंगी, वे होंगी, आतंक से जूझ रही सेना के विरोध में, जेल में सजा काट रहे अपराधियों के समर्थन में, पबों में नाचने वाली लड़कियों की अस्मिता (?) बचाने के लिए, यौन शिक्षा के समर्थन में। न तो कभी ये लोग कश्मीरी शरणार्थियों की बात करेंगे। इन्हें बर्फीली पहाडिय़ों पर लडऩे वाले सैनिक का दर्द कभी दिखाई नहीं देता। ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जो स्पष्टï करते हैं कि हमारे देश में कुछ पेशेवर हैं, कुछ गद्दार हैं, जिनका अपना एक सशक्त नैटवर्क है। यह नेटवर्क बड़ी चालाकी से हमारे सामाजिक तानेबाने में और सत्ता के गलियारों में विध्वंस की चिंगारियां छोड़ आता है, फिर दूर से तमाशा देखता है, ठहाके लगाता है। देखो देखो ये हिंदुस्तानी खुद की मर्यादाओं, संस्कृति और पुरा वैभव को कैसे धू-धू कर जला रहे हैं। दोषी कौन है? यह तलाश अब पूरी होनी चाहिए।
-लोकेन्द्र पाराशर, संपादक - दैनिक स्वदेश
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