!! बिना पुस्तक का विमोचन !!

किताब नहीं थी पर उसका विमोचन होना था। अगर आप सोच रहे हैं, ऐसा कैसे हो सकता है, तो साहब, हिंदी और हिंदुस्तान में

कुछ भी हो सकता है। आखिर हिंदी राष्ट्रभाषा ऐसे ही तो नहीं है। जो राष्ट्र में हो सकता है, वह राष्ट्रभाषा में भी हो सकता है। अब देखिए न, हमारे देश में रोज़ विकास हो रहा है, पर प्रगति नहीं हो रही। जब बिना प्रगति के विकास हो सकता है, तो बिना पुस्तक के विमोचन क्यों नहीं हो सकता?

तो, विमोचन का कार्यक्रम था, पर पुस्तक कोई नहीं थी। चर्चा करने के लिए मंच पर दस विद्वान विराजमान थे। कोई भी असहज महसूस नहीं कर रहा था। असहज महसूस करने का कोई नैतिक कारण भी नहीं था। बहुत-से हिंदी के विद्वान सर्वज्ञानी होते हैं। वे पुस्तक को बिना पढ़े भी उस पर चर्चा कर सकते हैं। हर विमोचन में करीब आधे विद्वान ऐसे होते हैं जिन्होंने वह पुस्तक नहीं पढ़ी होती। फिर भी वे बड़े अधिकार से अपना वक्तव्य देते हैं। इसलिए, यहां कोई समस्या ही नहीं थी। कोई पुस्तक ही नहीं थी कि बोलने के लिए पढ़नी पड़े।

विद्वान गंभीर मुद्रा में मंच पर बैठे थे। हिंदी विद्वानों की यह खास विशेषता है। विषय कैसा भी हो, उनकी मुद्रा हमेशा गंभीर होती है। उनकी गंभीरता की तुलना सिर्फ देश के नेताओं की गंभीरता से की जा सकती है। जिस तरह नेता देश के प्रति गंभीर रहते हैं, उसी तरह हिंदी के विद्वान भी हिंदी के प्रति गंभीर रहते हैं।

तो, दस विद्वान चर्चा करने के लिए मंच पर बैठे थे। दो वक्ता दूसरे शहर से आए थे। वैसे, वे आए किसी और काम से थे, पर विमोचन की खबर मिली, तो यहां भी आ गए। जैसे नेता कभी कुर्सी नहीं छोड़ता, वैसे ही वक्ता कभी बोलने का मौका नहीं छोड़ता। दूसरे शहर के वक्ताओं के आने से विमोचन का स्तर उठ गया। अब वह स्थानीय नहीं रहा, अखिल भारतीय हो गया।

अगर आपने दो-चार विमोचन देख लिए हैं, तो आप पहले से जान सकते हैं कि कौन सा वक्ता क्या बोलेगा। जैसे कि जो कमिटेड किस्म का वक्ता होता है, उसे इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि किताब कैसी है? वह सिर्फ सरोकार से मतलब रखता है। किताब नीरस हो, पठनीय न हो, एकदम बचकानी हो, लेखक को भाषा-शिल्प की जानकारी न हो, पर सरोकार सही हो तो उसके लिए किताब अच्छी है।

कुछ वक्ता राजनीति के गलियारे से आते हैं। वे हमेशा आगे बढ़ने की बात करते हैं। चाहे किताब का विमोचन हो या पार्टी की सभा, वे हर जगह सबको आगे बढ़ाते रहते हैं - 'हमें आगे बढ़ना है, देश को आगे ले जाना है'। पुस्तक को बिना पढ़े भी वे जानते हैं कि यह पुस्तक देश को आगे ले जाएगी। वैसे, देश को आगे ले जाना कोई मुश्किल काम नहीं है। नेता तो यह काम रोज ही करते हैं।

कुछ वक्ता हर दो वाक्य के बाद बात दोहराते हैं कि शाम को उन्हें वापस जाना है -'मैं आप सबका बहुत आभारी हूं कि आपने मुझे इस मंच से बोलने का अवसर दिया, पर मैं ज्यादा देर तक रुक नहीं सकता, क्योंकि शाम को मुझे वापस जाना है। लेखक ने बड़ी सुंदर पुस्तक लिखी है, पर मैं अभी इसे पढ़ नहीं पाया हूं, क्योंकि शाम को मुझे वापस जाना है। मैं ज्यादा देर बोल नहीं पाऊंगा, क्योंकि शाम को मुझे वापस जाना है।' और वे सचमुच ज्यादा देर नहीं बोलते। सिर्फ पचास मिनट बोलते हैं। जो आदमी आधे घंटे से कम बोलता है, हिंदी में उसे अज्ञानी समझा जाता है।

एक विमोचन में एक ऐसे विद्वान आए जिन्होंने गीता पढ़ रखी थी। वे कोई और किताब पढ़ना जरूरी नहीं समझते थे। जिस पुस्तक की चर्चा होनी थी, उसे भी नहीं। गीता में भी उन्हें एक श्लोक सबसे ज्यादा पसंद था- 'कर्मण्येवाधिकारस्ते...।' बिना पुस्तक के विमोचन पर यह श्लोक बिल्कुल फि़ट बैठता है। श्लोक लेखक से कहता है- 'हे लेखक, विमोचन कर्म है, वह करो। पुस्तक फल है, उसकी इच्छा मत करो।' वैसे, हिंदी की पुस्तक वह फल है जिसकी इच्छा लेखक के सिवाय कोई नहीं करता!

बायें हाथ कर खेल



अब तक ऐसा माना जाता था कि बचपन से हम जिस हाथ से काम करना प्रारंभ करते हैं, उसी हाथ से काम करने की आदत हमें पड़ जाती है। दुनिया में उल्टे हाथ वाले किन्तु सीधी बुद्धि वाले मात्र तेरह प्रतिशत लोगों की एकरुपता को प्रदर्शित करने के लिए तेरह अगस्त को विश्व लेफ्ट हैंडर्स डे के रूप में मनाया जाता है।
आज तक कोई भी व्यक्ति यह नहीं जान पाया कि दुनिया में कुल कितने लोग बाएं हाथ से लिखते और कार्य करते है पर कुछ समय पूर्व हुए सवेü के नतीजों से ज्ञात हुआ कि विश्व की कूल जनसँख्या में से तेरह प्रतिशत लोग लेफ्ट हैंडर हैं। इसीलिए अगस्त माह की तेरह तारिख को लेफ्ट हैडर्स डे के रूप में मनाया जाने लगा है।
पूरी दुनिया में बाहें हाथ का खेल निराला है। एक विचित्र संयोग यह भी है कि तेरह अगस्त कुल मिलाकर चार और आठ का घोलमेल है। चार- आठ और तेरह के अंक को अधिकाशतज् अशुभ माना जाता है- कारण पता नहीं।

कोई पूछे कौन हूँ मैं तो ...........

कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .

एक दोस्त है कच्चा पक्का सा ,
एक झूठ है आधा सच्चा सा .
जज़्बात को ढके एक पर्दा बस ,
एक बहाना है अच्छा अच्छा सा .

जीवन का एक ऐसा साथी है ,
जो दूर हो के पास नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .

हवा का एक सुहाना झोंका है ,
कभी नाज़ुक तो कभी तुफानो सा .
शक्ल देख कर जो नज़रें झुका ले ,
कभी अपना तो कभी बेगानों सा .

जिंदगी का एक ऐसा हमसफ़र ,
जो समंदर है , पर दिल को प्यास नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं .

एक साथी जो अनकही कुछ बातें कह जाता है ,
यादों में जिसका एक धुंधला चेहरा रह जाता है .
यूँ तो उसके न होने का कुछ गम नहीं ,
पर कभी - कभी आँखों से आंसू बन के बह जाता है .

यूँ रहता तो मेरे तसव्वुर में है ,
पर इन आँखों को उसकी तलाश नहीं .
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं.. ..............

समलेंगिकता पर भोजपुरी गीत

इ आज के डिमांड बा रउरा ना बुझाई
नर नर संगे, मादा मादा संगे जाई .
हाई कोर्ट देले बाटे अइसन एगो फैसला
गे लो के मन बढल लेस्बियन के हौसला
भइया संगे मूंछ वाली भउजी घरे आई
इ आज के डिमांड बा रउरा ना बुझाई...

खतम भइल धारा अब तीन सौ सतहत्तर
घूमतारे छूटा अब समलैंगिक सभत्तर
रीना अब बनि जइहें लीना के लुगाई
इ आज के डिमांड बा रउरा ना बुझाई...

पछिमे से मिलल बाटे अइसन इंसपिरेशन
अच्छे भइल बढी ना अब ओतना पोपुलेशन
बोअत रहीं बिया बाकि फूल ना फुलाई
इ आज के डिमांड बा रउरा ना बुझाई...

जानवर से यौनाचार के नियम इक दिन टूटी
आदमी से जानवर के रिस्ता ओह दिन जुटी
फेर जे बिआई , ऊहे देश के चलाई
इ आज के डिमांड बा रउरा ना बुझाई...

यमराज का इस्तीफा

एक दिन यमदेव ने दे दिया अपना इस्तीफा। 
मच गया हाहाकार बिगड़ गया सब संतुलन, 
करने के लिए स्थिति का आकलन, 
इन्द्र देव ने देवताओं की आपात सभा बुलाई 
और फिर यमराज को कॉल लगाई। 

डायल किया तो 
कृपया नम्बरजाँच लें की आवाज आई 
नये ऑफ़र में नम्बर बदलने की आदत से 
इन्द्रदेव को गुस्सा आई 
पर मामले की नाजुकता को देखकर, 
मन की बात उन्होने मन में ही दबाई। 
किसी तरह यमराज के नए नंबर की जुगाड़ लगाई , 
फिर से फोन लगाया गया तो '
झलक दिखलाजा झलक दिखलाजा ' की 
कॉलर टयून दी सुनाई 

सुन-सुन कर ये धुन सब बोर हो गये 
ऐसा लगा शायद यमराज जी सो गये। 
तहकीकात करने पर पता लगा, 
यमदेव पृथ्वीलोक में रोमिंग पर हैं, 
शायद इसलिए नहीं दे रहे हैं हमारी कॉल पे ध्यान, 
क्योंकि बिल भरने में निकल जाती है उनकी भी जान। 

जब यमराज हुये इन्द्र के दरबार में पेश, 
तब पूछा-यम क्या है ये इस्तीफे का केस? 
यमराज जी ने अपना मुँह खोला और बोले- 
हे इंद्रदेव। 
'मल्टीप्लैक्स' में जब भी जाता हूँ, 
'भैंसे' की पार्किंग न होने की वजह से 
बिन फिल्म देखे, ही लौट के आता हूँ। 
'मैकडोन्लड' वाले तो देखते ही इज्जत उतार देते हैं 
और ढ़ाबे में जाकर खाने-की सलाह दे देते हैं। 
मौत के काम पर जब पृथ्वीलोक जाता हूँ 
'भैंसे' पर देखकर पृथ्वीवासी भी हँसते हैं 
और कार न होने के ताने कसते हैं। 

भैंसे पर बैठे-बैठे झटके बड़े रहे हैं 
वायुमार्ग में भी अब ट्रैफिक बढ़ रहे हैं। 

रफ्तार की इस दुनिया मैं, भैंसे से कैसे काम चलाऊ 
आप कुछ समझ रहे हो या कुछ और बात बताऊ 

अब तो पृथ्वीवासी भी कार दिखा कर चिडाते है 
चकमा देकर मुझेसे आगे निकल जाते है 
हे इन्द्रदेव। मेरे इस दु:ख को समझो और 
चार पहिए की जगह चार पैरों वाला दिया है 
कह कर अब मुझे न बहलाओ, 
और जल्दी से 'मर्सिडीज़' मुझे दिलाओ। 

वरना मेरा इस्तीफा अपने साथ ले जाओ। 
और मौत का ये काम अब किसी और से कराओ

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