जीने के लिए भी वक़्त नही...

हर ख़ुशी है लोगों के दामन में,
पर एक हँसी के लिए वक़्त नही.
दिन रात दौड़ती दुनिया में,
ज़िंदगी के लिए ही वक़्त नही.

माँ की लोरी का एहसास तो है
पर माँ को माँ केहने का वक़्त नही.
सारे रिश्तों को तो हम मार चुके,
अब उन्हे दफ़नाने का भी वक़्त नही.

सारे नाम मोबाईल में हैं
पर दोस्ती के लिए वक़्त नही.
गैरों की क्या बात करें,
जब अपनो के लिए ही वक़्त नही.

आँखों मे है नींद बड़ी,
पर सोने का वक़्त नही.
दिल है गमो से भरा हुआ,
पर रोने का भी वक़्त नही.

पैसों की दौड़ मे ऐसे दौड़े,
की आराम का भी वक़्त नही.
पराए एहसासों की क्या क़द्र करें,
जब अपने सपनो के लिए ही वक़्त नही.

तू ही बता ए ज़िंदगी,
इस ज़िंदगी का क्या होगा,
की हर पल मरनेवालों को,
जीने के लिए भी वक़्त नही...
-राहुल सिंह

अपनी खुशियां कम लिखना


अपनी खुशियां कम लिखना।
औरों के भी गम लिखना।

हंसते अधरों के पीछे,
कितनी आंखें नम लिखना।

किसका अब विश्वास करें,
झूठी हुई कसम लिखना।

महलों में तो मौजें हैं,
कुटियों के मातम लिखना।

तंत्र-मंत्र में डूबे सब,
लोकतंत्र बेदम लिखना।

नेताओं के पेट बड़े,
सब कुछ करें हजम लिखना।

मतलब हो तो गैरों की,
भरते लोग चिलम लिखना।

अब तक पूज्य बने थे जो,
वे भी हुए अधम लिखना।

भर दे सबके घावों को,
अब ऐसा मरहम लिखना।
- राहुल सिंह

फिर नज़र से ............


फिर नज़र से पिला दिजीये!
होश मेरे उडा दिजीये...

छोडीये दुश्मनी की रज़िश
अब जरा मुस्कुरा दिजीये..

बात अफसाना बन जायेगी
इस कदर मत हवा दिजीये..

आइए खुल के मिलीए गले
सब तखल्लुक हटा दिजीये..

कब से मुस्ताके दिदार हूं
अब तो जलवा दिखा दिजीये॥

-जगजीत सिंह की 'आयना' से

दोस्त ... जिसे ढूंढ रही थी ...

इस वीरान अँधेरी दुनिया में
अपनी इन पलकों को झपका कर
एक ऐसे साथी को ढूंढ रही थी
जो दिल की हर बात समझ सके
उससे में अपनी हर बात कह सकू
उस पर इतना विश्वास कर सकू
उसको अपना बना सकू
जिसे में जानती नही पहचानती नही
उस स्वप्न की काल्पनिकता को
पलके झपका कर ढूंढ रही हूँ
जब मै उसकी आँखों की तरफ़ देखू
कुआ सा प्यारा लगे वो
बाँट सकू उससे अपने जीवन का हर पहलु

उस दोस्त को जिससे मै कभी मिली भी नही अभी
हर वायदा पूरा करने को हर दूरी मिटा दू
उस ज़िन्दगी में जो इसके रूप में चेतन हो गई है
हर दूरी से दूर जो एक दोस्त मेरा बैठा है
अब वो यहाँ है
मै भी यहाँ हूँ
इस अजनबी दुनिया का करने को आलिंगन
अब ये दुनिया लगती है मुझे सतरंगी
जिसमे है मेरा वो दोस्त अजनबी
हाँ वो तुम्ही हो तुम्ही हो तुम्ही हो
- ममता अग्रवाल

एक मंत्र बस भारत होता


तेरा मेरा कुछ होता, अब कुछ कितना अच्छा होता।
ये सब होता अपना सबका, कोई फिकर न कोई चिंता
एक मंत्र बस भारत होता, तो फ़िर कितना अच्छा होता।।

मेरी बोली तेरी भाषा, मेरा प्रान्त तुम्हारा क्षेत्र
मेरा वेश तुमहारी भूषा, मेरा धर्म तुम्हारी जाती
कोई कहता मेरा तेरा, तो फ़िर कितना अच्छा होता।।
एक मंत्र बस भारत होता, तो फ़िर कितना अच्छा होता।।

एक झण्डे के तले खड़े हो, एक राष्ट्र के प्रेम पगे हो
अपनी अपनी बान भुलाकर, आन पर जान लिये चले हो
एक साथ को अपने खुशियाँ, फ़िर कोई दुखी ना होता
एक मंत्र बस भारत होता, तो फ़िर कितना अच्छा होता।।

समीर में ज्यों गंध घुली हो, नीर क्षीर मिल मित्रता घनी हो
पानी की चंदन से प्रीति, संस्कृतियों की आस मिली हो
अरब दीप मिल बनते भानु, मिलजुल कर सब करना होता
एक मंत्र बस भारत होता, तो फ़िर कितना अच्छा होता।।

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