कुछ लिखना है कुछ कहना है




कुछ लिखना है कुछ कहना है
पर शब्द नहीं मिल पाते है
कलम हाथ में लेकर भी
हम कुछ भी लिख न पाते है

कुछ जहन में है कुछ दिल में है
फ़िर भी कुछ कह नही पाते है
मिलने की कोशिश करते है
पर उनसे मिल नही पाते है

कुछ सोच लिया कुछ बोल दिया
वो कुछ न समझ पाते है
हम कोशिश करते रहते है
वो किसी और से मिलने जाते है

कुछ ठेस लगी कुछ घाव हुए
पर दवा लगा नही पाते है
ऐसे जख्मो पर तो शायद
हकीम भी काम ना आते है

कुछ मजनू थे कुछ राँझा थे
हम कौन है समझ न पाते है
एकतरफा चाहने वालो को
सब पागल पागल बुलाते है

आज की नारी

आज की नारी जो है सबकी प्यारी
मात पिता की बड़ी दुलारी
घर में सुनती सबकी बारी बारी
फिर भी कितनी अकेली हे बेचारी

हर दम उसे ही करना होता बलिदान
अपनी खुशियों और सपनो का
सबकी रखती है वो लाज
होकर विदा जाती ससुराल
खाकर कसम कह देती वो
दुःख सुख में दूँगी पति का साथ

हर बार उसे ही देनी होती हे अग्नि परीक्षा
पति शादी के बाद देखे किसी और नारी की ओर
उसे कोई कुछ नही कहता पत्नी देखे किसी ओर की ओर
उसे सब कहते शर्म नही आती पति के होते हुए देखती हे
किसी ओर को एक नारी कहती हे दूसरी नारी से
क्यों ऑरत ही ऑरत की दुशमन हे
क्यों हे नारी लाचार
सब कुछ सहती गे पत्नी धर्म निभाती हे
परिवार को सुखी ओर खुशहाल बनती हे
सबकी खुशी का कह्यल रखती हे
पैर उसकी क्या खुशी हे ये कोई नही जानता
कितनी हे बेबस नारी
मैं आज की हर नारी से यही कहती हूँ
सभी रिश्ते निबाहो खुशी से
पैर अपनी भी कोई पहचान बनाओ
न जियो किसी की दम पर
खड़ी हो जाओ अपने अपने पैरो पर
छु लो अस्मा किसी से न रहो पीछे
हम क्या नही कर सकते मर्दों का हेर काम अब्ब हम भी हे करते
पर मर्द नही चला सकते हमरी तरह घर न ही बना सकते हे परिवार खुशहाल
अपने सपना न करो कुर्बान बनाओ अपनी अलग पहचान
कितनी हे बेबस नारी

घूंघट

उनकी सेवा
करते करते
थकती नहीं वो
दिन से लेकर
रात तक हर रोज़
उनकी स्थिति
उनकी सम्पन्नता
उनका वैभव
दिखाने को
लाद लेती है
भारी भारी गहने
और कपडे
खूब करती है श्रृंगार
प्रसन्न होकर प्रतिदिन
पूछा जाता है जब
परिचय उसका
बताती है वो
गोत्र उन्ही का
संतान भी उसकी
कहलाती है उनकी
घर, ज़मीन , संपत्ति अंहकार
इन सब से जुड़े
उनके अपराधों को
झेलती है वो -
फिर भी उन्हें
ढकने के लिए
छिपा लेती है
अपना ही मुख
घूंघट की ओट में

(रक्षा शुक्ला )

आज कल

आज कल आँखें कम सोती हैं
बहुत ज़्यादा रोती हैं

आज कल मनन उदास है
बहुत ज़्यादा रोग के पास है

आज कल दिल कम धड़कता है
बहुत ज़्यादा रुकता है

आज कल तुम्हारी याद आती है
बहुत ज़्यादा सताती है

आज कल कुछ नही समझ आता है
बहुत ज़्यादा भूल भुलाया होजाता है

न जाने ये कैसी बीमारी होती जा रही है
अहिस्ता अहिस्ता हमारी जान लेती जारही है....

-पिंकी वालिया
तुर्की

तीर चला नज़र का


जब तीर चला नज़र का 
भेद गया मेरे दिल को 
जब पलके उठाई उसने 
हाय! में कैसे संभालू दिल को 
उसकी भोली सी खूबसूरत आँखे 
जैसे समझाती है मुझको 
झील सी गहरायी है इनमे 
तभी तो डूबा लेती है मुझको 
उसकी आँखों की चमक ये कहती है 
छुपा लू दामन में तुझको 
क्यों डूबता जा रहा हूँ मै 
यह ख़बर नही है मुझको 
जब देखे आँखों में अश्क उसके 
क्यों संभाल नही पाया में ख़ुद को 
खुदा से फरियाद करने लगा मै 
दें दें उस नाजनीन के ग़म मुझको 
ऐ ममता अब तू ही बता 
क्या मिलेंगे उसके ग़म मुझको 

 -ममता अग्रवाल

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