आज की नारी जो है सबकी प्यारी
मात पिता की बड़ी दुलारी
घर में सुनती सबकी बारी बारी
फिर भी कितनी अकेली हे बेचारी
हर दम उसे ही करना होता बलिदान
अपनी खुशियों और सपनो का
सबकी रखती है वो लाज
होकर विदा जाती ससुराल
खाकर कसम कह देती वो
दुःख सुख में दूँगी पति का साथ
हर बार उसे ही देनी होती हे अग्नि परीक्षा
पति शादी के बाद देखे किसी और नारी की ओर
उसे कोई कुछ नही कहता पत्नी देखे किसी ओर की ओर
उसे सब कहते शर्म नही आती पति के होते हुए देखती हे
किसी ओर को एक नारी कहती हे दूसरी नारी से
क्यों ऑरत ही ऑरत की दुशमन हे
क्यों हे नारी लाचार
सब कुछ सहती गे पत्नी धर्म निभाती हे
परिवार को सुखी ओर खुशहाल बनती हे
सबकी खुशी का कह्यल रखती हे
पैर उसकी क्या खुशी हे ये कोई नही जानता
कितनी हे बेबस नारी
मैं आज की हर नारी से यही कहती हूँ
सभी रिश्ते निबाहो खुशी से
पैर अपनी भी कोई पहचान बनाओ
न जियो किसी की दम पर
खड़ी हो जाओ अपने अपने पैरो पर
छु लो अस्मा किसी से न रहो पीछे
हम क्या नही कर सकते मर्दों का हेर काम अब्ब हम भी हे करते
पर मर्द नही चला सकते हमरी तरह घर न ही बना सकते हे परिवार खुशहाल
अपने सपना न करो कुर्बान बनाओ अपनी अलग पहचान
कितनी हे बेबस नारी
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2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दरता से चित्रण किया है, बधाई.
भाई निर्भय जी ,नारी इतनी बेचारी नहीं है ,
लेकिन आपसे मेरे कई निवेदन हैं जिन्हें मैं काफी दिनों से कहना चाह रही हूँ ,मगर आपके यहाँ से बार -बार खराब मूड लेकर बिना कुछ कहे ही चली जाती हूँ
१ - हिन्दी मैं मस्ती का अर्थ समझ में नहीं आता ,इसे हिन्दी में मस्ती लिखा होता तो कितना अच्छा लगता २- गर्दू गाफिल जी से ज़रा रचनाएं त्रुटी-हीन करवाकर प्रकाशित करते
३- हिन्दी साहित्य में सर्जना का एक ऊंचा स्टार है ,वहाँ तक नहीं पहुँच सकते तो उसके आस-पास रहने की कोशिश करते
देखिये अपनी शिकायत मैंने सिर्फ इसलिए दर्ज करायी है ताकि आने वाली पीधिया ये कह कर हमें न कोसें की हिन्दी साहित्य का astar गिरते हुए देख कर भी हम मूक -दर्शक बने रहे
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