दोस्त ... जिसे ढूंढ रही थी ...

इस वीरान अँधेरी दुनिया में
अपनी इन पलकों को झपका कर
एक ऐसे साथी को ढूंढ रही थी
जो दिल की हर बात समझ सके
उससे में अपनी हर बात कह सकू
उस पर इतना विश्वास कर सकू
उसको अपना बना सकू
जिसे में जानती नही पहचानती नही
उस स्वप्न की काल्पनिकता को
पलके झपका कर ढूंढ रही हूँ
जब मै उसकी आँखों की तरफ़ देखू
कुआ सा प्यारा लगे वो
बाँट सकू उससे अपने जीवन का हर पहलु

उस दोस्त को जिससे मै कभी मिली भी नही अभी
हर वायदा पूरा करने को हर दूरी मिटा दू
उस ज़िन्दगी में जो इसके रूप में चेतन हो गई है
हर दूरी से दूर जो एक दोस्त मेरा बैठा है
अब वो यहाँ है
मै भी यहाँ हूँ
इस अजनबी दुनिया का करने को आलिंगन
अब ये दुनिया लगती है मुझे सतरंगी
जिसमे है मेरा वो दोस्त अजनबी
हाँ वो तुम्ही हो तुम्ही हो तुम्ही हो
- ममता अग्रवाल

3 टिप्‍पणियां:

Dr. Ravi Srivastava ने कहा…

सचमुच में बहुत ही प्रभावशाली लेखन है... वाह…!!! वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी और हमें अच्छी -अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगे, बधाई स्वीकारें।

आप के द्वारा दी गई प्रतिक्रियाएं मेरा मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन करती हैं।
आप के अमूल्य सुझावों का 'मेरी पत्रिका' में स्वागत है...
Link : www.meripatrika.co.cc

…Ravi Srivastava

सदा ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

निर्मला कपिला ने कहा…

सुन्दर अभिव्यक्ति शुभकामनायें

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