अंतरराष्ट्रीय स्तर अपनी मेहनत और समर्पण से दुनिया की इस आधी आबादी ने पुरुष प्रधान व्यवस्था में अपनी जो एक हैसियत कायम की है, वह एक मिसाल है। आज और बीते दिनों पर नजर डालें तो यह बिल्कुल साफ हो जाता है कि जहां-जहां और जब-जब भी मौका मिला, महिलाओं ने यह साबित कर दिखाया कि वे किसी से कम नहीं। चाहे फिर वह वैदिक काल की विदुषी गार्गी और मैत्रेयी हों, बुद्ध के शांति संदेशों को विदेशी सरजमीं पर फैलाने वाली संघमित्रा हों, मध्यकाल की रजिया सुल्तान हों या फिर भारत की स्वतंत्रता के लिए वीरता के नए मानदंड गढऩे वाली झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, मैडम कामा, सरोजिनी नायडू, विजयालक्ष्मी पंडित जैसे दर्जनों-सैकड़ों नाम।
अगर हम आज और निकट अतीत में ही थोड़ा झांकने की फुरसत निकालें तो जुबान पर बरबस इंदिरा गांधी, मार्ग्रेट थैचर, बेमिसाल बेनजीर भुट्टो, शेख हसीना के नाम आ जाते हैं। पीटी उषा, अश्विनी नचप्पा, साइना नेहवाल और सानिया मिर्जा के खेल पर खड़े होकर तालियां पीटते लाखों-करोड़ों लोगों के हुजूम का भी एक अक्स उभर आता है। लेकिन, हर वर्ष आठ मार्च को महिला दिवस पर आसपास नजर घुमाते हैं तो विडंबनाओं से भरी कचोटने और कई सवाल खड़े करने वाली एक अलग तस्वीर भी सामने आती है। इस कड़वे सच को नहीं झुठलाया जा सकता है कि आज महिलाएं जहां एक ओर अपनी योग्यता, पराक्रम और उद्यमशीलता से रोज नए प्रतिमान बना रही हैं, वहीं बहुसंख्यक महिलाएं शोषण, अत्याचार और हिंसा का शिकार हैं। महिलाएं कौतुक और विस्मय का विषय बन गई हैं और उसकी सुघड़ता, कुशलता, प्रखरता एवं योग्यता के बदले उसके रंग-रूप, यौवन, आकार, उभार और ऊंचाई की मानसिकता हावी हो गई है।
इस कुत्सित मानसिकता का भयावह दुष्परिणाम आज हमारे समने बलात्कार, अत्याचार, कन्या भ्रूण हत्याएं एवं नारी हिंसा के रूप में है। आप तनिक इन आंकड़ों पर गौर कीजिए, आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे और आपको सामाजिक मूढ़ता और प्रशासनिक शिथिलता पर शर्म आएगी और एक मार्मिक चीख निकल आएगी। 2012 के बलात्कार आंकड़ें 2011 के मुकाबले 24 प्रतिशत ज़्यादा हैं। एनसीआरबी के 1953 से लेकर 2011 तक के अपराध के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। 1971 के बाद से देश में बलात्कार की घटनाएं 873.3 फीसदी तक बढ़ी हैं। इसके अलावा उन मामलों की फेरहिस्त भी काफी लंबी है जिनकी शिकायत थाने तक पहुंचने ही नहीं या पहुंचने ही नहीं दी गई..! बलात्कार के मामलों में 40 साल में करीब 800 फीसदी तक का इजाफा हैरान करने वाला है। देश की विभिन्न अदालतों में बलात्कार एवं यौन अपराध से जुड़े 24,117 मामले लंबित है जिसमें सबसे अधिक 8215 मामले इलाहाबाद उच्च न्यायालय में हैं। स्वयं कानून मंत्री ने भी माना है कि 30 सितंबर 2012 तक देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में बलात्कार से जुड़े 23,792 और उच्चतम न्यायालय में 325 मामले लंबित है।
महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा के लिए चीखते इन प्रश्नों से कदम-कदम पर हमारा सामना होता है। लेकिन सामाजिक बेशर्मी और प्रशासनिक शिथिलता के कारण इसके उत्तर लापता हैं। क्या हमें बार-बार बलात्कार की घटना हो जाने के बाद प्रतिवावद और आंदोलन की जरूरत है? 16 दिसंबर 2012 को निर्भया बलात्कार कांड के बाद क्या गुबारों का बारूद नहीं फट पड़ा था? लेकिन, देश और दुनिया को दहलाकर रख देने वाली उस घटना के बाद क्या यौन हिंसा रुक गई? नहीं। हम सभी जानते हैं कि हाल ही में एक वरिष्ठ पत्रकार पर यौन शोषण के गंभीर आरोप लगे और मामला अभी कार्ट में विचाराधीन है।
यह कोई अकेला आरोप नहीं है। ऐसे कई मामले हैं। गुडग़ांव की एक कंपनी में सुकन्या (बदला हुआ नाम) के साथ दुष्कर्म का मामला भी कोर्ट के विचाराधीन है। 25 अक्टूबर, 2013 को एवन हेविट प्रा. लि. के दो प्रबंध निदेशकों ने अपने गुडग़ांव ऑफिस में सुकन्या (बदला हुआ नाम) के साथ बलात्कार किया। वह इन दरिंदों का शिकार केवल इस कारण से हुई कि वह एक साधारण परिवार की थी और ये दरिंदे उसे नौकरी और करियर की धमकी देते थे। इन लोगों ने ऐसा जाल बुना था कि वह उससे निकल नहीं पा रही थी। खास बात ये कि उसे उसके ही सीनियर पूजा ने उसे नोएडा से गुडग़ांव ऑफिस में शिफ्ट किया था। सुकन्या ने बार बार पूजा से गुजारिश की थी कि वहां और लड़कियों के तबादले किए जाएं ताकि माहौल सुरक्षित रह सके। अंत में लगातार दुष्कर्म से परेशान सुकन्या को नौकरी छोडऩी पड़ी।
सुकन्या के मामले में खास बात ये थी कि उस कंपनी में कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ के खिलाफ विशाखा दिशा-निर्देश नहीं लगा था जो करना सभी कार्यालयों में कोर्ट ने अनिवार्य कर दिया है। इस दिशा-निर्देश में न केवल कार्य स्थल पर यौन उत्पीडऩ पर रोक के प्रावधान हैं, बल्कि ऐसे मामलों में जांच के भी समुचित प्रवाधान व प्रक्रियाओं के उल्लेख हैं। इस तरह की लापरवाही को कैसे माफ किया जा सकता है। यह कोर्ट के दिशा निर्देश का भी उल्लंघन है। इस मामले को उठाने वाले सुप्रीम कोर्ट के वकील किसलय पांडेय बताते हैं कि दुष्कर्म को रोकने और ऐसे मामलों से निपटने के लिए अनेक कानूनों के बावजूद दिल्ली पुलिस अक्षम साबित होती रही है। यदि पीडि़ता असहाय है तो उसे कभी न्याय नहीं मिल पाएगा।
बदलते हुए वक्त की आवाज सरकार तक भी पहुंची है। अभी इसी सप्ताह बलात्कार पीडि़तों की मानसिक पीड़ा को समझते हुए सरकार ने इलाज और जांच के लिए नई गाइडलाइन जारी की है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने टू फिंगर टेस्ट पर रोक लगा दी है। नए दिशा-निर्देश के अनुसार इसे अवैज्ञानिक और गैर-कानूनी करार दिया गया है। अस्पतालों से कहा गया है कि वे पीडि़तों की फॉरेंसिक और मेडिकल जांच के लिए अलग से कमरे की व्यवस्था करें।
अब तक बलात्कार पीडि़तों की जांच केवल पुलिस के कहने पर की जाती थी, लेकिन अब यदि पीडि़त पहले अस्पताल आती है तो एफआईआर के बिना भी डॉक्टरों को उसकी जांच करनी चाहिए। डॉक्टरों से 'रेप' शब्द का इस्तेमाल नहीं करने को कहा गया है, क्योंकि यह मेडिकल नहीं कानूनी टर्म है। अस्पतालों को रेप केस में मेडिको-लीगल मामलों (एमएलसी) के लिए अलग से कमरा मुहैया कराना होगा और उनके पास गाइड लाइंस में बताए गए आवश्यक उपकरण होना जरूरी है। पीडि़त को वैकल्पिक कपड़े उपलब्ध कराने की व्यवस्था होनी चाहिए और जांच के वक्त डॉक्टर के अलावा तीसरा व्यक्ति कमरे में नहीं होना चाहिए। यदि डॉक्टर पुरुष है तो एक महिला का होना आवश्यक है।
कानून भी बने और उपाय भी किए गए। लेकिन फिर भी कुछ सवाल अभी भी जवाब ढूंढ रहे हैं। मसलन, भारत को महिलाओं के लिए सुरक्षित कैसे बनाया जाए? भारतीय महिलाओं को सही मायनों में सशक्त बनाने के लिए उसे पूरी आर्थिक स्वतंत्रता, दैहिक स्वतंत्रता व निर्णय लेने की स्वतंत्रता कब मिलेगी? घरेलू हिंसा के लिए मुख्य रूप से कौन जिम्मेदार है? स्त्री कब तक महज एक देह मानी जाती रहेगी? क्या बदलते दौर में आने वाली पीढ़ी के मन में महिलाओं के प्रति सम्मान को कैसे बढ़ाया जाए?
इन सवालों के जवाब में ही महिला सशक्तिकरण का कालजयी नुस्खा छिपा है। आइए हम आज से ही इस महान बदलाव के शुरुआत की शपथ लें। माताएं अपने बेटे और बेटियों की परवरिश में अंतर करना छोड़ दें। घर में पिता-पत्नी और बेटी का, और बेटा-मां और बहन का सम्मान करें। बाहर किसी भी स्त्री को कोई भी पुरुष इंसान की तरह मान कर सम्मान करें। साथ ही स्त्रियां भी स्त्री होने का गलत और बेजा उपयोग न करें। अगर हम अपने घर से ही इसकी शुरुआत करते हैं तो हम बदलेंगे, समाज बदलेगा और युग बदलेगा। तभी उस आधी आबादी को, जिसकी आंखों पर शायरों ने लाजवाब नज्म लिखे और जिसके शौर्य और पराक्रम पर कवियों ने वीर रस की ओजपूर्ण कविताएं लिखीं, उन्हें वो हक मिलेगा जिसकी वो हकदार हैं। अब और वक्त नहीं है हमारे पास। अगर इन लम्हों में हमसे कोई खता हुई तो आने वाली सदियों को भुगतना होगा।
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