गजल

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आप लोगों की दी हुई,
मोहब्बत पर इठलाता हूँ।
मैं इतने दिलों में रहता हूँ,
कि घर का पता भूल जाता हूँ।।

नहीं हुनर किसी में मेरे जैसा,
मैं लोगों को ऊंगलियों पर नचाता हूँ।।

कुछ लोग मुझे फरिश्ता कहते हैं,
मैं नफरत के स्कूलों में मोहब्बत पढ़ाता हूँ।।

खुशियों के बाजार में मेरी भी दुकान सजी है,
मैं आवाज लगा-लगाकर सौदागरों को बुलाता हूँ।।

नहीं यकीं तो तू भी मुझसे मिलकर देख,
देख किस तरह मैं तुझे अपना बनाता हूँ।।

गीत

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ह्रदय योग कर दे ,हमें मीत कर दे
चलो कोई ऐसा ,लिखें गीत, गायें।
सूखी पडी है, नहर नेह रस की
पतित पावनी गीत गंगा बहायें

दृग्वृत पे मन के दिवाकर जी डूबे
उचटते हुए प्रीत बंधन हैं ऊबे
कुसुम चाव के ,घाव खाए पड़े हैं
गीत संजीवनी कोई इनको सुनाएँ
ह्रदय योग कर दे ......

चकाचोंध चारों तरफ़ ,फ़िर भी कोई
तिमिर के घटाटोप पे आँख रोई
कहींपर निबलता कहीं भूख बिखरी
इन्हे ज्योति के गीत देकर जगाएं
ह्रदय योग कर दे ......

घटाओं को तृप्ति बरस कर ही मिलती
हमीं पड़ गए संचयों में अधिकतम
इसी से हुए प्राण बेसुध विकल कृष
गीत अमृत इन्हें आज जी भर पिलायें
ह्रदय योग कर दे ........

तेरे बिन




तनहा तनहा रात गुजारी, 
तनहा तनहा दिन 
खयालो में ही खोया रहता हूँ, 
सारा सारा दिन 

नहीं सह सकता विरह की पीडा 
हर पल छिन 
अब तो आजा ओ हरजाई, 
नहीं लगता दिल तेरे बिन

हिंदू संस्कृतिका प्रतीक `नमस्कार'

ईश्वरके दर्शन करते समय अथवा ज्येष्ठ या सम्माननीय व्यक्तिसे मिलनेपर हमारे हाथ अनायास ही जुड जाते हैं । हिंदू मनपर अंकित एक सात्त्विक संस्कार है `नमस्कार' । भक्तिभाव, प्रेम, आदर, लीनता जैसे दैवीगुणोंको व्यक्त करनेवाली व ईश्वरीय शक्ति प्रदान करनेवाली यह एक सहज धार्मिक कृति है । नमस्कारकी योग्य पद्धतियां क्या है, नमस्कार करते समय क्या नहीं करना चाहिए, इसका शास्त्रोक्त विवरण यहां दे रहे हैं ।

1. नमस्कारके लाभ

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मूल धातु `नम:'से `नमस्कार' शब्द बना है । `नम:' का अर्थ है नमस्कार करना, वंदन करना । `नमस्कारका मुख्य उद्देश्य है - जिन्हें हम नमन करते हैं, उनसे हमें आध्यात्मिक व व्यावहारिक लाभ हो ।

व्यावहारिक लाभ : देवता अथवा संतोंको नमन करनेसे उनके गुण व कर्तृत्वका आदर्श हमारे समक्ष सहज उभर आता है । उसका अनुसरण करते हुए हम स्वयंको सुधारनेका प्रयास करते हैं ।

आध्यात्मिक लाभ :

१. नम्रता बढती है व अहं कम होता है ।
२. शरणागिति व कृतज्ञताका भाव बढता है ।
३. सात्त्विकता मिलती है व आध्यात्मिक उन्नति शीघ्र होती है ।

2. मंदिरमें प्रवेश करते समय सीढियोंको नमस्कार कैसे करें ?

सीढियोंको दाहिने हाथकी उंगलियोंसे स्पर्श कर, उसी हाथको सिरपर फेरें । `मंदिरके प्रांगणमें देवताओंकी तरंगोंके संचारके कारण सात्त्विकता अधिक होती है । परिसरमें फैले चैतन्यसे सीढियां भी प्रभावित होती हैं । इसलिए सीढीको दाहिने हाथकी उंगलियोंसे स्पर्श कर, उसी हाथको सिरपर फेरनेकी प्रथा है । इससे ध्यानमें आता है कि, सीढियोंकी धूल भी चैतन्यमय होती है; हमें उसका भी सम्मान करना चाहिए ।

3. देवताको नमन करनेकी योग्य पद्धति व उसका आधारभूत शास्त्र क्या है ?

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अ. `देवताको नमन करते समय, सर्वप्रथम दोनों हथेलियोंको छातीके समक्ष एक-दूसरेसे जोडें । हाथोंको जोडते समय उंगलियां ढीली रखें । हाथोंकी दो उंगलियोंके बीच अंतर न रख, उन्हें सटाए रखें । हाथोंकी उंगलियोंको अंगूठेसे दूर रखें । हथेलियोंको एक-दूसरेसे न सटाएं; उनके बीच रिक्त स्थान छोडें ।

आ. हाथ जोडनेके उपरांत, पीठको आगेकी ओर थोडा झुकाएं ।
इ. उसी समय सिरको कुछ झुकाकर भ्रूमध्य (भौहोंके मध्यभाग)को दोनों हाथोंके अंगूठोंसे स्पर्श कर, मनको देवताके चरणोंमें एकाग्र करनेका प्रयास करें ।
ई. तदुपरांत हाथ सीधे नीचे न लाकर, नम्रतापूर्वक छातीके मध्यभागको कलाईयोंसे कुछ क्षण स्पर्श कर, फिर हाथ नीचे लाएं ।
इस प्रकार नमस्कार करनेपर, अन्य पद्धतियोंकी तुलनामें देवताका चैतन्य शरीरद्वारा अधिक ग्रहण किया जाता है ।

साष्टांग नमस्कार : षड्रिपु, मन व बुद्धि, इन आठों अंगोंसे ईश्वरकी शरणमें जाना अर्थात् साष्टांग नमस्कार ।

4. वयोवृद्धोंको नमस्कार क्यों करना चाहिए ?

Doing Namaskar to elders

घरके वयोवृद्धोंको झुककर लीनभावसे नमस्कार करनेका अर्थ है, एक प्रकारसे उनमें विद्यमान देवत्वकी शरण जाना । वयोवृद्धोंके माध्यमसे, जीवको आवश्यक देवताका तत्त्व ब्रह्मांडसे मिलता है । उनसे प्राप्त सात्त्विक तरंगोंके बलपर, कष्टदायक स्पंदनोंसे अपना रक्षण करना चाहिए । इष्ट देवताका स्मरण कर की गई आशीर्वादात्मक कृतिसे दोनों जीवोंमें ईश्वरीय गुणोंका संचय सरल होता है ।

5. किसीसे मिलनेपर हस्तांदोलन (हैंडशेक) न कर, हाथ जोडकर नमस्कार करना इष्ट क्यों है ?

१. जब दो जीव हस्तांदोलन करते हैं, तब उनके हाथोंसे प्रक्षेपित राजसी-तामसी तरंगें हाथोंकी दोनों अंजुलियोंमें संपुष्ट होती हैं । उनके शरीरमें इन कष्टदायक तरंगोंके वहनका परिणाम मनपर होता है ।

Avoid a Hand Shake: It tranfers undesirable raja-tama components!

२. यदि हस्तांदोलन करनेवाला अनिष्ट शक्तिसे पीडित हो, तो दूसरा जीव भी उससे प्रभावित हो सकता है । इसलिए सात्त्विकताका संवर्धन करनेवाली नमस्कार जैसी कृतिको आचरण्में लाएं । इससे जीवको विशिष्ठ कर्म हेतु ईश्वरका चैतन्यमय बल तथा ईश्वरकी आशीर्वादरूपी संकल्प-शक्ति प्राप्त होती है ।

Doing Namaskar to each other
३. हस्तांदोलन करना पाश्चात्य संस्कृति है । हस्तांदोलनकी कृति, अर्थात् पाश्चात्य संस्कृतिका पुरस्कार । नमस्कार, अर्थात् भारतीय संस्कृतिका पुरस्कार । स्वयं भारतीय संस्कृतिका पुरस्कार कर, भावी पीढीको भी यह सीख दें ।

6. मृत व्यक्तिको नमस्कार क्यों करना चाहिए ?

त्रेता व द्वापर युगोंके जीव कलियुगके जीवोंकी तुलनामें अत्यधिक सात्त्विक थे । इसलिए उस कालमें साधना करनेवाले जीवको देहत्यागके उपरांत दैवगति प्राप्त होती थी । कलियुगमें कर्मकांडके अनुसार, `ईश्वरसे मृतदेहको सद्गति प्राप्त हो', ऐसी प्रार्थना कर मृतदेहको नमस्कार करनेकी प्रथा है ।

7. विवाहोपरांत पति व पत्नीको एक साथ नमस्कार क्यों करना चाहिए ?

विवाहोपरांत दोनों जीव गृहस्थाश्रममें प्रवेश करते हैं । गृहस्थाश्रमें एक-दूसरेके लिए पूरक बनकर संसारसागर-संबंधी कर्म करना व उनकी पूर्ति हेतु एक साथ बडे-बूढोंके आशीर्वाद प्राप्त करना महत्त्वपूर्ण है । इस प्रकार नमस्कार करनेसे ब्रह्मांडकी शिव-शक्तिरूपी तरंगें कार्यरत होती हैं । गृहस्थाश्रममें परिपूर्ण कर्म होकर, उनसे योग्य फलप्राप्ति होती है । इस कारण लेन-देनका हिसाब कम निर्माण होता है । एकत्रित नमस्कार करते समय पत्नीको पतिके दाहिनी ओर खडे रहना चाहिए ।

8. किसीसे भेंट होनेपर नमस्कार कैसे करें ?

किसीसे भेंट हो, तो एक-दूसरेके सामने खडे होकर, दोनों हाथोंकी उंगलियोंको जोडें । अंगूठे छातीसे कुछ अंतरपर हों । इस प्रकार कुछ झुककर नमस्कार करें । इस प्रकार नमस्कार करनेसे जीवमें नम्रभावका संवर्धन होता है व ब्रह्मांडकी सात्त्विक-तरंगें जीवकी उंगलियोंसे शरीरमें संक्रमित होती हैं । एक-दूसरेको इस प्रकार नमस्कार करनेसे दोनोंकी ओर आशीर्वादयुक्त तरंगोंका प्रक्षेपण होता है ।

9. नमस्कारमें क्या करें व क्या न करें ?

  1. नमस्कार करते समय नेत्रोंको बंद रखें ।
  2. नमस्कार करते समय पादत्राण धारण न करें ।
  3. एक हाथसे नमस्कार न करें ।
  4. नमस्कार करते समय हाथमें कोई वस्तु न हो ।
  5. नमस्कार करते समय पुरुष सिर न ढकें व स्त्रियोंको सिर ढकना चाहिए ।

अधिक जानकारी हेतु अवश्य पढे सनातनका ग्रंथ - नमस्कारकी योग्य पद्धतियां

सनातन संस्था विश्वभरमें धर्मजागृति व धर्मप्रसारका कार्य करती है । इसीके अंतर्गत इस लेखमें `हिंदू संस्कृतिके प्रतीक नमस्कार संबंधी जानकारी, नमस्कारकी योग्य पद्धति तथा नमस्कार करनेपर होनेवाले लाभ' इस विषयपर अंशमात्र जानकारी प्रस्तुत की गई है । अधिक जानकारीके लिए संपर्क करें :sanatan@sanatan.org

देवालयमें दर्शनकी योग्‍य पद्धति

. देवालयमें दर्शन कैसे करें ?

`देवालय' अर्थात् जहां भगवानका साक्षात् वास है । दर्शनार्थी देवालयमें इस श्रद्धासे जाते हैं कि, वहां उनकी प्रार्थना भगवानके चरणोंमें अर्पित होती है और उन्हें मन:शांति अनुभव होती है


. देवालयमें दर्शनकी योग्य पद्धति

२।१ देवालयमें प्रवेशेसे पहले आवश्यक कृतियां


  • शरीरपर धारण की हुई चर्मकी वस्तुएं उतार दें ।

    देवालयके प्रांगणमें जूते-चप्पल पहनकर न जाएं; उन्हें देवालयक्षेत्रके बाहर ही उतारें । देवालयके प्रांगण अथवा देवालयके बाहर जूते-चप्पल उतारने ही पडें, तो देवताकी दाहिनी ओर उतारें ।

  • देवालयमें व्यवस्था हो, तो पैर धो लें । हाथमें जल लेकर `अपवित्र: पवित्रो वा', ऐसा तीन बार बोलते हुए अपने संपूर्ण शरीरपर तीन बार जल छिडकें ।

  • किसी देवालयमें प्रवेश करनेसे पूर्व पुरुषोंद्वारा अंगरखा (शर्ट) उतारकर रखनेकी पद्धति हो, तो उस पद्धतिका पालन करें । (यद्यपि यह व्यावहारिक रूपसे उचित न लगे, तब भी देवालयकी सात्त्विकता बनाए रखने हेतु कुछ स्थानोंपर ऐसी पद्धति है ।)

  • देवालयमें दर्शन हेतु जाते समय पुरुष भक्तजनोंको टोपी तथा स्त्रीभक्तोंको पल्लूसे अपने सिरको ढकना चाहिए ।

  • देवालयके प्रवेशद्वार व गरुडध्वजको नमस्कार करें । प्रांगणसे देवालयके कलशका दर्शन करें एवं कलशको नमस्कार करें ।

. देवालयके प्रांगणसे सभामंडपकी ओर जाना

प्रांगणसे सभामंडपकी ओर जाते समय हाथ नमस्कारकी मुद्रामें हों । (दोनों हाथ अनाहतचक्रके स्थानपर जुडे हुए व शरीरसे कुछ अंतरपर हों ।) भाव ऐसा हो कि, `अपने परमश्रद्धेय श्री गुरुदेव या आराध्य देवतासे प्रत्यक्ष भेंट करने जा रहे हैं' ।

२.३ देवालयकी सीढियां चढना

देवालयकी सीढियां चढते समय दाहिने हाथकी उंगलियोंसे सीढीको स्पर्श कर हाथ अपने आज्ञाचक्रपर रखें ।

. सभामंडपमें प्रवेश करना

  • सभामंडपमें प्रवेश करनेसे पूर्व सर्वप्रथम सभामंडपके द्वारको दूरसे नमस्कार करें ।

  • सभामंडपकी सीढियां चढते समय दाहिने हाथकी उंगलियोंसे सीढीको स्पर्श कर हाथ आज्ञाचक्रपर रखें ।

  • सभामंडपमें पदार्पण करते समय प्रार्थना करें, `हे प्रभु, आपकी मूर्तिसे प्रक्षेपित चैतन्यका मुझे अधिकाधिक लाभ होने दें' ।

२.५ सभामंडपसे गर्भगृहकी ओर जानेकी पद्धति
सभामंडपकी बाईं ओरसे चलते हुए गर्भगृहतक जाएं । (देवताके दर्शनके उपरांत लौटते समय सभामंडपकी दाहिनी ओरसे आएं ।)
२.६ देवता-दर्शनसे पूर्व आवश्यक कृति

  • जहांतक संभव हो घंटानाद न करें । यदि नाद करना ही हो तो, अति मंदस्वर में ऐसे भावसे करें मानो `घंटानादसे अपने आराध्य देवताको जगा रहे हों ।

  • शिवालयमें पिंडीके दर्शन करनेसे पूर्व नंदीके दोनों सींगोंको हाथ लगाकर नंदीके दर्शन करें ।

  • साधारणत: गर्भगृहमें जानेकी मनाही होती है; परंतु कुछ देवालयोंके गर्भगृहमें प्रवेशकी सुविधा है । ऐसेमें गर्भगृहके प्रवेशद्वारपर श्री गणपति हों, तो उन्हें नमस्कार करनेके उपरांत ही गर्भगृहमें प्रवेश करें।

३. देवताकी मूर्तिके दर्शन करते समय आवश्यक कृतियां
  • देवताके दर्शन करते समय, देवताकी मूर्ति व उनके सामने प्रतिष्ठित कच्छपकी प्रतिमाके बीच तथा शिवालयमें पिंडी व उसके सामने प्रतिष्ठित नंदीकी प्रतिमाके बीच खडे न रहें और न ही बैठें । कच्छप अथवा नंदीकी प्रतिमा तथा देवताकी मूर्ति अथवा पिंडीको जोडनेवाली रेखाकी एक ओर खडे रहें ।

  • देवताके दर्शन करते समय पहले चरणमें देवताके चरणोंपर दृष्टि टिकाए, नतमस्तक होकर प्रार्थना करें । दूसरे चरणमें देवताके वक्षपर, अर्थात् अनाहतचक्रपर मन एकाग्र कर देवताको आर्त्तभावसे पुकारें । दर्शनके तीसरे अर्थात् अंतिम चरणमें देवताके नेत्रोंकी ओर देखें व उनके रूपको अपने नेत्रोंमें बसाएं ।

  • नमस्कार करते समय पुरुष सिर न ढकें (सिरसे टोपी हटाएं); परंतु स्त्रियां सिर ढकें ।

  • देवताको जो वस्तु अर्पित करनी हो, वह देवताके ऊपर न डालें; अपितु उनके चरणोंमें अर्पित करें । यदि मूर्ति दूर हो, तो `मूर्तिके चरणोंमें अर्पित कर रहे हैं', ऐसा भाव रखकर उसे देवताके सामने रखी थालीमें रखें।

४. देवताकी परिक्रमा लगाना

  • परिक्रमा आरंभ करनेसे पूर्व गर्भगृहके बाह्य भागमें बाईं ओर खडे रहें । (परिक्रमा पूर्ण करनेपर दाहिनी ओर खडे होकर देवताके दर्शन करें ।)

  • देवताकी परिक्रमा करनेसे पहले देवतासे प्रार्थना करें, `हे ..... (देवताका नाम) परिक्रमामें प्रत्येक पगके साथ आपकी कृपासे मेरे पूर्वजन्मोंके पापोंका शमन हो व आपसे प्रक्षेपित चैतन्यको मैं अधिकाधिक ग्रहण कर सकूं ।'

  • परिक्रमा मध्यम गतिसे एवं नामजप करते हुए लगाएं ।

  • परिक्रमाके दौरान गर्भगृहको बाहरसे स्पर्श न करें । देवताकी मूर्तिके पीछे रुककर नमस्कार करें ।

  • साधारणत: देवताओंकी परिक्रमा सम संख्यामें (उदा. २, ४, ६) एवं देवीकी परिक्रमा विषम संख्यामें (उदा. १, ३, ५) करनी चाहिए । यदि अधिक परिक्रमाएं करनी हों, तो न्यूनतम परिक्रमाकी गुणाकार संख्यामें करें (उदा. न्यूनतम संख्या २ है, तो ४, ६, ८, १० परिक्रमाएं कर सकते हैं) ।

  • प्रत्येक परिक्रमाके उपरांत देवताको नमन करके ही अगली परिक्रमा लगाएं ।

  • परिक्रमा पूर्ण होनेपर शरणागतभावसे देवताको नमस्कार करें व तदुपरांत मानसप्रार्थना करें ।

५. तीर्थ व प्रसाद ग्रहण करना

  • परिक्रमाके उपरांत दाहिने हाथसे तीर्थ प्राशन कर, वही हाथ आंखों, ब्रह्मरंध्र, मस्तक व गर्दनपर लगाएं ।

  • प्रसादको दाहिने हाथमें लेते हुए नम्रतासे झुकें ।

  • देवालयमें ही बैठकर कुछ समय नामजप करें व तदुपरांत प्रसाद ग्रहण करें ।

  • खडे होकर देवताको मानस नमस्कार करें ।

  • स्वच्छ वस्त्रमें लपेटकर प्रसाद घर ले जाएं ।

मेरे टूटे हुए दिल को.....

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मेरे टूटे हुए दिल को, सहारा कोन देगा
मेरी तूफ़ान में कश्ती, किनारा कोन देगा
यह केसे मोड़ पे लाइ हें, मुजको जिन्दिगानी
अधूरी सी लिखी गयी हँ, क्यूँ मेरी कहानी
हँ अब किस राह पे चलना, इशारा कोन देगा
मेरे टूटे हुए दिल को. सहारा कौन देगा
मैं हूँ और साथ मेरे, अब मेरी तन्हैया हैं
मेरी तकदीर से मुजको, मिली रुस्वयिया हैं
मेरी आँखों को खुशिओं का, नज़ारा कौन देगा
मेरे टूटे हुए दिल को, सहारा कौन देगा

पांच पर्वों का प्रतीक है दिवाली

त्योहार या उत्सव हमारे सुख और हर्षोल्लास के प्रतीक है जो परिस्थिति के अनुसार अपने रंग-रुप और आकार में भिन्न होते हैं। त्योहार मनाने के विधि-विधान भी भिन्न हो सकते है किंतु इनका अभिप्राय आनंद प्राप्ति या किसी विशिष्ट आस्था का संरक्षण होता है। सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा अवश्य जुड़ी हुई है और इन कथाओं का संबंध तर्क से न होकर अधिकतर आस्था से होता है। यह भी कहा जा सकता है कि पौराणिक कथाएं प्रतीकात्मक होती हैं।

कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दिवाली का त्योहार मनाया जाता है। दिवाली को दीपावली भी कहा जाता है। दिवाली एक त्योहार भर न होकर, त्योहारों की एक श्रृंखला है। इस पर्व के साथ पांच पर्वों जुड़े हुए हैं। सभी पर्वों के साथ दंत-कथाएं जुड़ी हुई हैं। दिवाली का त्योहार दिवाली से दो दिन पूर्व आरम्भ होकर दो दिन पश्चात समाप्त होता है।

दिवाली का शुभारंभ कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होता है। इसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देवता धन्वंतरि की आराधना की जाती है। इस दिन नए-नए बर्तन, आभूषण इत्यादि खरीदने का रिवाज है। इस दिन घी के दिये जलाकर देवी लक्ष्मी का आहवान किया जाता है।

दूसरे दिन चतुर्दशी को नरक-चौदस मनाया जाता है। इसे छोटी दिवाली भी कहा जाता है। इस दिन एक पुराने दीपक में सरसों का तेल व पाँच अन्न के दाने डाल कर इसे घर की नाली ओर जलाकर रखा जाता है। यह दीपक यम दीपक कहलाता है।

एक अन्य दंत-कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर राक्षस का वध कर उसके कारागार से 16,000 कन्याओं को मुक्त कराया था।

तीसरे दिन अमावस्या को दिवाली का त्योहार पूरे भारतवर्ष के अतिरिक्त विश्वभर में बसे भारतीय हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस दिन देवी लक्ष्मी व गणेश की पूजा की जाती है। यह भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है।

दिवाली के पश्चात अन्नकूट मनाया जाता है। यह दिवाली की श्रृंखला में चौथा उत्सव होता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं।

शुक्ल द्वितीया को भाई-दूज या भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। मान्यता है कि यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज निकट नहीं फटकता।

दिवाली भरत में बसे कई समुदायों में भिन्न कारणों से प्रचलित है। दीपक जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग कारण या कहानियाँ हैं।

राम भक्तों के अनुसार दिवाली वाले दिन अयोध्या के राजा राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध कर के अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने कि खुशी यह पर्व मनाया जाने लगा।

कृष्ण भक्तों की मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री कृण्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था। इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक घी के दीये जलाए।

एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात देवी लक्ष्मी व भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए।

जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही हुआ था।

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध के स्वागत में लाखों दीप जला कर दीपावली मनाई थी। दीपावली मनाने के कारण कुछ भी रहे हों परंतु यह निश्चित है कि यह वस्तुत: दीपोत्सव है।

सिक्खों के लिए भी दिवाली महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था और दिवाली ही के दिन सिक्खों के छ्टे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को कारागार से रिहा किया गया था।

नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष आरम्भ होता है।

दीवाली (दीपावली) का सार और त्यौहार

चौदह वर्षका वनवास समाप्त कर जब श्रीरामप्रभु अयोध्या लौटे, तब प्रजाने दीपोत्सव मनाया तबसे दीपावली उत्सव मनाया जाता है दीपावली शब्द दीप आवली (पंक्ति, कतार) इस प्रकार बना है इसका अर्थ है, दीपोंकी पंक्ति अथवा कतार दीपावलीके दिन सर्वत्र दीप लगाए जाते हैं कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धनत्रयोदशी / धनतेरस), कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरकचतुर्दशी), अमावस्या (लक्ष्मीपूजन) कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा (बलिप्रतिपदा) ये चार दिन दीपावली मनाई जाती है कुछ लोग त्रयोदशीको दीपावलीमें सम्मिलित कर, शेष तीन दिनोंकी ही दीवाली मनाते हैं वसुबारस भैयादूजके दिन दीपावलीके साथ ही आते हैं, इसी कारण इनका समावेश दीपावलीमें किया जाता है; परंतु वास्तवमें ये त्यौहार भिन्न हैं

कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धनत्रयोदशी)

इसीको बोली भाषामें धनतेरस कहा जाता है इस दिन व्यापारी तिजोरीका पूजन करते हैं व्यापारी वर्ष, दीवालीसे दीवालीतक होता है नए वर्षके हिसाबकी बहियां इसी दिन लाते हैं आयुर्वेदकी दृष्टिसे यह दिन धन्वंतरि जयंतीका है वैद्य मंडली इस दिन धन्वंतरि (देवताओंके वैद्य) का पूजन करते हैं लोगोंको नीमके पत्तोंके छोटे टुकडे शक्कर प्रसादके रूपमें बांटते हैं इसका गहरा अर्थ है नीमकी उत्पत्ति अमृतसे हुई है इससे प्रतीत होता है, कि धन्वंतरि अमृतत्वका दाता है

यमदीपदान

यमराजका कार्य है प्राण हरण करना । कालमृत्युसे कोई नहीं बचता और न ही वह टल सकती है; परंतु `किसीको भी अकाल मृत्यु न आए', इस हेतु धनत्रयोदशीपर यमधर्मके उद्देश्यसे गेहूंके आटेसे बने तेलयुक्त (तेरह) दीप संध्याकालके समय घरके बाहर दक्षिणाभिमुख लगाएं । सामान्यत: दीपोंको कभी दक्षिणाभिमुख नहीं रखते, केवल इसी दिन इस प्रकार रखते हैं । आगे दी गई प्रर्थना करें - `ये तेरह दीप मैं सूर्यपुत्रको अर्पण करता हूं । वे मृत्युके पाशसे मुझे मुक्त करें व मेरा कल्याण करें ।'

नरकचतुर्दशी (कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी)

श्रीमद्भागवतपुराणमें ऐसी एक कथा है - नरकासुरका अंत कर कृष्णने सर्व

राजकुमारियोंको मुक्त किया । मरते समय नरकासुरने कृष्णसे वर मांगा, कि `आजके दिन मंगलस्नान करनेवाला नरककी पीडासे बच जाए ।' कृष्णने उसे तदनुसार वर दिया । इस कारण कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीको नरकासुर चतुर्दशीके नामसे मानने लगे व इस दिन लोग सूर्योदयसे पूर्व अभ्यंगस्नान करने लगे ।

त्यौहार मनानेकी पद्धति

  • आकाशमें तारोंके रहते, ब्राह्ममुहूर्तपर अभ्यंग (पवित्र) स्नान करते हैं ।

  • यमतर्पण : अभ्यंगस्नानके पश्चात् अपमृत्युके निवारण हेतु यमतर्पणकी विधि बताई गई है । तदुपरांत माता पुत्रोंकी आरती उतारती हैं ।

  • दोपहरमें ब्राह्मणभोजन व वस्त्रदान करते हैं ।

  • प्रदोषकालमें दीपदान, प्रदोषपूजा व शिवपूजा करते हैं ।

कार्तिक अमावस्या (लक्ष्मीपूजन)

सामान्यत: अमावस्या अशुभ मानी जाती है; यह नियम इस अमावस्यापर लागू

नहीं होता है । इस दिन `प्रात:कालमें मंगलस्नान कर देवपूजा, दोपहरमें पार्वणश्राद्ध व ब्राह्मणभोजन एवं संध्याकालमें (प्रदोषकालमें) फूल-पत्तोंसे सुशोभित मंडपमें लक्ष्मी, विष्णु इत्यादि देवता व कुबेरकी पूजा, यह इस दिनकी विधि है ।

लक्ष्मीपूजन करते समय एक चौकीपर अक्षतसे अष्टदल कमल अथवा स्व

स्तिक बनाकर उसपर लक्ष्मीकी मूर्तिकी स्थापना करते हैं । लक्ष्मीके समीप ही कलशपर कुबेरकी प्रतिमा रखते हैं । उसके पश्चात् लक्ष्मी इत्यादि देवताओंको लौंग, इलायची व शक्कर डालकर तैयार किए गए गायके दूधसे बने खोयेका नैवेद्य चढाते हैं । धनिया, गुड, चावलकी खीलें, बताशा इत्यादि पदार्थ लक्ष्मीको चढाकर तत्पश्चात् आप्तेष्टोंमें बांटते हैं । ब्राह्मणोंको व

अन्य क्षुधापीडितोंको भोजन करवाते हैं । रातमें जागरण करते हैं । पुराणोंमें कहा गया है, कि कार्तिक अमावस्याकी रात लक्ष्मी सर्वत्र संचार करती हैं व अपने निवासके लिए यो

ग्य स्थान ढूंढने लगती हैं । जहां स्वच्छता, शोभा व रसिकता दिखती है, वहां तो वह आकर्षित होती ही हैं; इसके अतिरिक्त जिस घरमें चारित्रिक, कर्तव्यदक्ष, संयमी, धर्मनिष्ठ, देवभक्त व क्षमाशील पुरुष एवं गुणवती व पतिकाता स्त्रियां निवास करती हैं, ऐसे घरमें वास करना लक्ष्मीको भाता है ।

बलिप्रतिपदा (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा)

यह साढेतीन मुहूर्तोंमेंसे अर्द्ध मुहूर्त है । इसे विक्रम संवत्के वर्षारंभदिनके रूपमें मनाया जाता है ।

बलिप्रतिपदाके दिन जमीनपर पंचरंगी रंगोलीद्वारा बलि व उनकी पत्नी विंध्यावलीके चित्र बनाकर उनकी पूजा करनी चाहिए, उन्हें मांस-मदिराका नैवेद्य दिखाना चाहिए । इसके पश्चात् बलिप्रीत्यर्थ दीप व वस्त्रका दान करना चाहिए । इस दिन प्रात:काल अभ्यंगस्नान करनेके उपरांत स्त्रियां अपने पतिकी आरती उतारती हैं । दोपहरमें ब्राह्मणभोजन व मिष्टान्नयुक्त भोजन बनाती हैं । इस दिन गोवर्धनपूजा करनेकी प्रथा है । गोबरका पर्वत बनाकर उसपर दूर्वा व पुष्प डालते हैं व इनके समीप कृष्ण, ग्वाले, इंद्र, गाएं, बछडोंके चित्र सजाकर उनकी भी पूजा करते हैं ।

भैयादूज (यमद्वितीया, कार्तिक शुक्ल द्वितीया)

  • अपमृत्युको टालने हेतु धनत्रयोदशी, नरकचतुर्दशी व यमद्वितीयाके दिन मृत्युके देवता, यमधर्मका पूजन कर उनके चौदह नामोंका तर्पण करनेके लिए कहा गया है । इससे अपमृत्यु नहीं आती । अपमृत्यु निवारणके लिए `श्री यमधर्मप्रीत्यर्थं यमतर्पणं करिष्ये' । ऐसा संकल्प कर तर्पण करना चाहिए ।

  • इस दिन यमराज अपनी बहन यमुनाके घर भोजन करने जाते हैं व उस दिन नरकमें सड रहे जीवोंको वह उस दिनके लिए मुक्त करते हैं ।

इस दिन किसी भी पुरुषको अपने घरपर या अपनी पत्नीके हाथका अन्न नहीं खाना चाहिए । इस दिन उसे अपनी बहनके घर वस्त्र, गहने इत्यादि लेकर जाना चाहिए व उसके घर भोजन करना चाहिए । ऐसे बताया गया है, कि सगी बहन न हो तो किसी भी बहनके पास या अन्य किसी भी स्त्रीको बहन मानकर उसके यहां भोजन करना चाहिए । किसी स्त्रीका भाई न हो, तो वह किसी भी पुरुषको भाई मानकर उसकी आरती उतारे । यदि ऐसा संभव न हो, तो चंद्रमाको भाई मानकर आरती उतारते हैं ।

धनतेरस से जुड़ी रोचक कथा

आधुनिक युग की तेजी से बदलती जीवन शैली में भी धनतेरस की परम्परा कायम है। समाज के सभी वर्गों के लोग कई महत्वपूर्ण चीजों की खरीदारी के लिए पूरे साल इस पर्व का बेसब्री से इंतजार करते हैं।
पंचांग के अनुसार हर साल कार्तिक कृष्ण की त्रयोदशी के दिन धन्वतरि त्रयोदशी मनायी जाती है। जिसे आम बोलचाल में ‘धनतेरस’ कहा जाता है। यह मूलतः धन्वन्तरि जयंती का पर्व है और आयुर्वेद के जनक धन्वन्तरि के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है।
धनतेरस के दिन नए बर्तन या सोना-चांदी खरीदने की परम्परा है। इस पर्व पर बर्तन खरीदने की शुरआत कब और कैसे हुई, इसका कोई निश्चित प्रमाण तो नहीं है लेकिन ऐसा माना जाता है कि जन्म के समय धन्वन्तरि के हाथों में अमृत कलश था। यही कारण होगा कि लोग इस दिन बर्तन खरीदना शुभ मानते हैं।
आने वाली पीढ़ियां अपनी परम्परा को अच्छी तरह समझ सकें, इसके लिए भारतीय संस्कृति के हर पर्व से जुड़ी कोई न कोई लोककथा अवश्य है। दीपावली से पहले मनाए जाने वाले धनतेरस पर्व से भी जुड़ी एक लोककथा है, जो कई युगों से कही-सुनी जा रही है।
धनतेरस की कथा
पौराणिक कथाओं में धन्वन्तरि के जन्म का वर्णन करते हुए बताया गया है कि देवता और असुरों के समुद्र मंथन से धन्वन्तरि का जन्म हुआ था। वह अपने हाथों में अमृत-कलश लिए प्रकट हुए थे। इस कारण उनका नाम ‘पीयूषपाणि धन्वन्तरि’ विख्यात हुआ। उन्हें विष्णु का अवतार भी माना जाता है।
परम्परा के अनुसार धनतेरस की संध्या को यम के नाम का दीया घर की देहरी पर रखा जाता है और उनकी पूजा करके प्रार्थना की जाती है कि वह घर में प्रवेश नहीं करें और किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं। देखा जाए तो यह धार्मिक मान्यता मनुष्य के स्वास्थ्य और दीर्घायु जीवन से प्रेरित है।
यम के नाम से दीया निकालने के बारे में भी एक पौराणिक कथा है- एक बार राजा हिम ने अपने पुत्र की कुंडली बनवाई, इसमें यह बात सामने आयी कि शादी के ठीक चौथे दिन सांप के काटने से उसकी मौत हो जाएगी। हिम की पुत्रवधू को जब इस बात का पता चला तो उसने निश्चय किया कि वह हर हाल में अपने पति को यम के कोप से बचाएगी। शादी के चौथे दिन उसने पति के कमरे के बाहर घर के सभी जेवर और सोने-चांदी के सिक्कों का ढेर बनाकर उसे पहाड़ का रूप दे दिया और खुद रात भर बैठकर उसे गाना और कहानी सुनाने लगी ताकि उसे नींद नहीं आए।
रात के समय जब यम सांप के रूप में उसके पति को डंसने आया तो वह आभूषणों के पहाड़ को पार नहीं कर सका और उसी ढेर पर बैठकर गाना सुनने लगा। इस तरह पूरी रात बीत गई। अगली सुबह सांप को लौटना पड़ा। इस तरह उसने अपने पति की जान बचा ली। माना जाता है कि तभी से लोग घर की सुख-समृद्धि के लिए धनतेरस के दिन अपने घर के बाहर यम के नाम का दीया निकालते हैं ताकि यम उनके परिवार को कोई नुकसान नहीं पहुंचाए।
भारतीय संस्कृति में स्वास्थ्य का स्थान धन से ऊपर माना जाता रहा है। यह कहावत आज भी प्रचलित है कि “पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में माया” इसलिए दीपावली में सबसे पहले धनतेरस को महत्व दिया जाता है। जो भारतीय संस्कृति के सर्वथा अनुकूल है।
धनतेरस के दिन सोने और चांदी के बर्तन, सिक्के तथा आभूषण खरीदने की परम्परा रही है। सोना सौंदर्य में वृद्धि तो करता ही है, मुश्किल घड़ी में संचित धन के रूप में भी काम आता है। कुछ लोग शगुन के रूप में सोने या चांदी के सिक्के भी खरीदते हैं।
बदलते दौर के साथ लोगों की पसंद और जरूरत भी बदली है इसलिए इस दिन अब बर्तनों और आभूषणों के अलावा वाहन, मोबाइल आदि भी खरीदे जाने लगे हैं। वर्तमान समय में देखा जाए तो मध्यमवर्गीय परिवारों में धनतेरस के दिन वाहन खरीदने का फैशन सा बन गया है। इस दिन ये लोग गाड़ी खरीदना शुभ मानते हैं। कई लोग तो इस दिन कम्प्यूटर और बिजली के उपकरण भी खरीदते हैं।
रीति-रिवाजों से जुड़ा धनतेरस आज व्यक्ति की आर्थिक क्षमता का सूचक बन गया है। एक तरफ उच्च और मध्यम वर्ग के लोग धनतेरस के दिन विलासिता से भरपूर वस्तुएं खरीदते हैं तो दूसरी ओर निम्न वर्ग के लोग जरूरत की वस्तुएं खरीद कर धनतेरस का पर्व मनाते हैं। इसके बावजूद वैश्वीकरण के इस दौर में भी लोग अपनी परम्परा को नहीं भूले हैं और अपने सामर्थ्य के अनुसार यह पर्व मनाते हैं।

पाँच दिनों का त्यौहार


चम चम करती दिवाली
घर घर दीपक जलते हैं
द्वार द्वार सजी रंगोली
रंग अनेक मन हरते हैं
उठती रसोई से सुगंध मनमोहक
लड्डू बर्फी बालूसाही
कितने पकवान कितनी मिठाई
फुलझडी की तड तड संग किलकारियां
फुवारों के संग चकरियां प्यारियां
वो देखो बदमाश हरा बम्ब लाया
कितने जोर का धमाका मचाया
मिलते लोगों से देते बधाई
हर मुख पर खुसी लहराई
चम चम करती लक्ष्मी
संग शारदा गणेश भी लायी
दर्दिरता, अज्ञान, विघ्न हरेंगे
अर्चित हो हम पर अनुग्रह करेंगे
उनके लिए दीप जलाओ
आनंदित हो घर सजाओ
एक मेरी थी प्यारी बेहेना
स्वर्ग में है, कोई उसको कहना
लक्ष्मी संग तुम भी आना
घर में पग फिर से धरना
आँखों से सूरत हटती नहीं
प्यारी अटखेलियाँ बिसरती नहीं
काश तुम संग हमारे होतीं
ऑंखें दीपो में रोतीं
इस्वर उसे सम्बहले रखना
स्वर्ग के सब प्राप्य वास्तु उसको देना.

बेटियाँ...............


बोए जाते है बेटे ,

उग जाती है बेटियाँ.

खाद पानी बेटो को,

और लहलहाती है बेटियाँ.

एवरेस्ट की उचाईयों तक,

धकेले जाते है बेटे.

और चढ़ जाती है बेटियाँ.

रुलाते है बेटे.,

और रोती है बेटियाँ.

कई तरह गिरते है बेटे,

और संभल लेती है बेटियाँ.

सुख के स्वपन दिखाते है बेटे,

जीवन का यथार्थ है बेटियाँ.

जीवन तो बेटो का है,

और मरी जाती है बेटियाँ...............

करवा-चौथ व्रत कथा


एक समय की बात है। पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले गए। किंही कारणों से वे वहीं रूक गये। उधर पांडवों पर गहन संकट आ पड़ा। शोकाकुल, चिंतित द्रौपदी ने श्रीकृष्ण का ध्यान किया। भगवान के दर्शन होने पर अपने कष्टों के निवारण हेतु उपाय पूछा। कृष्ण बोले- हे द्रौपदी! तुम्हारी चिंता एवं संकट का कारण मैं जानता हूँ, उसके लिए तुम्हें एक उपाय बताता हूँ। कार्तिक कृष्ण चतुर्थी आने वाली है, उस दिन तुम करवा चौथ का व्रत रखना। शिव गणेश एवं पार्वती की उपासना करना, सब ठीक हो जाएगा। द्रोपदी ने वैसा ही किया। उसे शीघ्र ही अपने पति के दर्शन हुए और उसकी सब चिंताएं दूर हो गईं। कृष्ण ने दौपदी को इस कथा का उल्लेख किया था:

भगवती पार्वती द्वारा पति की दीर्घायु एवं सुख-संपत्ति की कामना हेतु उत्तम विधि पूछने पर भगवान शिव ने पार्वती से ‘करवा चौथ’ का व्रत रखने के लिए जो कथा सुनाई, वह इस प्रकार है –

एक समय की बात है कि एक करवा नाम की पतिव्रता धोबिन स्त्री अपने पति के साथ तुंगभद्रा नदी के किनारे के गाँव में रहती थी। उसका पति बूढ़ा और निर्बल था। करवा का पति एक दिन नदी के किनारे कपड़े धो रहा था कि अचानक एक मगरमच्छ उसका पाँव अपने दाँतों में दबाकर उसे यमलोक की ओर ले जाने लगा। वृद्ध पति से कुछ नहीं बन पड़ा तो वह करवा...करवा.... कह के अपनी पत्नी को पुकारने लगा।

अपने पति की पुकार सुन जब करवा वहां पहुंची तो मगरमच्छ उसके पति को यमलोक पहुँचाने ही वाला था। करवा ने मगर को कच्चे धागे से बाँध दिया। मगरमच्छ को बाँधकर यमराज के यहाँ पहुँची और यमराज से अपने पति की रक्षा व मगरमच्छ को उसकी धृष्टता का दंड देने का आग्रह करने लगी- हे भगवन्! मगरमच्छ ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। उस मगरमच्छ को उसके अपराध के दंड-स्वरूप आप अपने बल से नरक में भेज दें।

यमराज करवा की व्यथा सुनकर बोले- अभी मगर की आयु शेष है, अतः मैं उसे यमलोक नहीं पहुँचा सकता। इस पर करवा बोली, "अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूँगी।" उसका साहस देखकर यमराज डर गए और उस पतिव्रता करवा के साथ आकर मगरमच्छ को यमपुरी भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु दी। यमराज करवा की पति-भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हुए और उसे वरदान दिया कि आज से जो भी स्त्री कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को व्रत रखेगी उसके पति की मैं स्वयं रक्षा करूंगा। उसी दिन से करवा-चौथ के व्रत का प्रचलन हुआ।

दीवाली में दीवाला


देखो देखो दिवाली आयी
रंग बिरंगी रोशनी लाई
ये त्यौहार है खुशियो वाला
महा लक्ष्मी के पूजन वाला

आओ सब मिली खुशी मनाये
आओ जलाये दीपों की माला
लक्ष्मी जी की पूजा करे
हो जाए सब जगह उजाला

लेकिन महंगाई के आलम में तो
सबका हुआ है हाल बेहाला
हम तेल के दीप को तरस रहे
कोई दीप जला रहा घी वाला

अबकी दीवाली तो हो गयी फीकी
आलू - शक्कर ने दम निकला
मंत्री नेता की हो रही दीवाली
और अपना तो निकल गया दीवाला

" गांधीजी को किया कैद कागज़ पर "---- हमसे जुडा एक सच |


" गांधीजी "को मारनेवाले हम लोग जब उनकी तारीफ करते है ...तो बड़ा अजीब लगता है , गाँधी की तस्वीर को चाहते है हम, मगर उनके सिद्धांतो को भूल गए है ....और इसी लिए कहेता हु मै की , " गाँधी को मारनेवाले हम लोग ही है "..अगर गाँधी के सिद्धांतो को भूल जाते है हम तो ये गाँधीजी को मारने बराबर ही है "
" सिर्फ़ उनकी याद में उनके जन्म दिन पर दो अच्छी बातें लिखकर गाँधी को याद करने का हक सायद हम भारतवासियों ने खो दिया है उनके ....सिद्धांतो को मारकर कौन करता है उनके सिद्धांतो का पालन ...क्या हम करते है ?..नही ,"क्यों की गाँधी की तस्वीर अच्छी है ,मगर उनके सिद्धांत ये ज़माने में फिट नही बैठ ते "..सायद यही जवाब होगा आप सब का ? गाँधी जयंती आई, चलो याद करे गांधीजी को ....दो फूल ले आओ ,एक माला ले आओ ...दो चार देश भक्ति के गीत गाओ और भूल जाओ "गांधीजी" को , दुसरे दिन वही गांधीजी की तस्वीर तले बैठ कर आराम से "रिश्वत" दो ..क्या यही है गांधीजी का सिद्धांत ? क्या यही सीखे है हम उनके जीवन चरित्र से ? "
" माउन्ट ब्लांक " जैस्सी विदेशी कम्पनी जो " गाँधीजी "से प्रभावित होकर ...२४१ पेन ,जो "व्हाइट गोल्ड" से बनी है मार्केट में लॉन्च कर रही है ...जिसका नाम रखा है " गाँधी " ...मगर हम या हमारी निक्कमी सरकार क्या करते है " गांधीजी " के लिए ? ..जवाब है ...कुछ नही ...करते है तो सिर्फ़ उनके सिद्धांतो को तोड़ने का कार्य ही ..."माउन्ट ब्लांक " कम्पनी को धन्यवाद की उन्होंने हमारे " राष्ट्रपिता गांधीजी " की कद्र की ...भले ही उनके पेन की कीमत ११ लाख ३३ हज़ार हो ..अरे क्या हमारे" गांधीजी "के सिद्धांत भी क्या कम अनमोल थे ? जो पेन सस्ता हो "
" गांधीजी के सिद्धांतो को तोड़नेवाले तमाम भारतीयों को सलाम ....दोस्तों " गांधीजी "को सिर्फ़ कागज़ पर कैद मत करो ....उनके सिद्धांतो को जिन्दा रखो ...ये बात मैंने अपनी पिछली पोस्ट याने " गाँधी तेरा राष्ट्र बिगड़ गया " में भी की थी ,आप सब से गुजारिश है दोस्तों की " गांधीजी की तस्वीर के साथ साथ उनके सिद्धांतो को भी जिन्दा रखो ....."
" गांधीजी के सिद्धांतो को कफ़न पहेनाकर, उनकी तस्वीर को फूलो के हार से मत सजाओ ....उनकी तस्वीर के साथ साथ गांधीजी के सिद्धांत भी हमारे लिए कीमती है गांधीजी की तस्वीर दिल में और उनके सिद्धांत अपने साथ रखो ...यही सच्ची रीत होगी उन्हें याद करने की सायद "
" गाँधी " नाम से जुड़े सिद्धांतो को महत्व देना हम भारतीयों का फ़र्ज़ है .....आओ हम मिलकर कहे आज की, गांधीजी को सिर्फ़ तस्वीर बनाकर नही ,बल्कि तस्वीर के साथ साथ उनके सिद्धांतो को भी हम अपने दिल में जिन्दा रखेंगे "
" जय हिंद "
एकसच्चाई { आवाज़ }

मंज़र यादो का

किसीको गम ने मारा ,
किसीको तक़दीर ने मारा ,
हमको तेरी तस्वीर ने मारा |

क्या हमने पाया,
क्या तुमने पाया
ये खेल है ......
मिलके बिछड़ ने का ........

आओ इस वीराने में बैठकर
चंद बूंद गिराकर अश्को के
बुनले मंज़र यादों का |

किए थे कुछ हमने वादे ,
किए थे कुछ तुमने वादे ,
आओ बुनते है इन्ही से
मंज़र यादो का |

जीवन अधुरा सा लगता



आप अगर न आते मेरे जीवन मैं 
ये जीवन अधूरा नजर आता हमें 
कल तक जो अजनबी था मेरे लिए 
आज उसी को दिल चाहता हे 
हर खुशी के लिए कोई हे 
जो दुआ करता हे अपनों मैं 
कुछ मीठे पल याद आते हे सपनो मैं 
मन का पुलकित दीप समर्पित किया तुम्हें 
 आप हमेशा खुश रहो यही दुआ देते हे तुम्हें 
आओ हम आपको आखो मैं छुपा ले 
बेकरार दिल की धड़कन बना ले 
तेरी हर अदा मोह्ह्बत सी लगती हे जिन्दगी 
के हर लम्हे में आपकी जरुरत सी लगती हे 
आपके जीवन में हमेशा खुशिया रहे 
जीवन भर एक दुसरे का साथ रहे 
एक पल भी तेरी जुदाई नहीं सहेंगे 
हम आपसे बिछुड़कर एक पल जी न सकेंगे 
हम आप अगर ............

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